छूटी गेल भाई से भतिजवा आउरो घर नईहर हे

लोक जीवन में लोकगीतों का महत्वपूर्ण स्थान है कारण मानव जीवन का कोई ऐसा पक्ष नहीं जो इससे अछूता रह गया हो। लोकगीतों की रचना का आरम्भ कब हुआ इसका तिथि निरूपण संभव नहीं लगता है इसके बारे में इतना ही कहा जा सकता है कि जबसे पृथ्वी पर मानव का अस्तित्व आया तभी से उसके मुख से गीत भी फूटने लगे ये गीत हर्ष-विषाद जीवन-मरण आदि के समय अभिन्न रूप से मुखरित होते रहे हैं लोकगीतों की यह धारा विधा भाषाओं में प्राप्त परम्पराओं के रूप में प्रवाहित होती चली आ रही है और अनन्त काल तक प्रवाहित होती रहेगी। लोक गीतों में विवाह गीत का भी महत्वपूर्ण स्थान है। विवाह गीत विवाह के विधी-विधान के आधर पर गाये जाते हैं जिसमें मंडप निर्माण कन्यादान सिन्दूर दान और विदाई आदि के अनेक उदाहरण हैं जिसमें इस प्रकार के विधान विशेष का उल्लेख हुआ है।

        मंडप बनाने के समय एक गीत गाया जाता है जिसमें मंडप के महत्व के वर्णन के साथ पति-पत्नी के संबंधों का भी विश्लेषण होता है कन्या अपने पिता से कहती है-

        कहमांहि दुनिया जनम गेल जी बाबूजी
        कहमांहि परसल डाढ़ हे।

        बाबूजी! दूब कहां जन्म लेती है और उसकी टहनियां कहां फैलती हैं, इस प्रकार मैंने जन्म लिया कहां तुम्हारे घर और विकसना तथा फूलना-फलना है दूसरे के घर। पिता का उत्तर है-

        दुअराहिं दुनिया जनम गेल गे बेटी
        मड़वा हीं पसरल डाढ़ हे।

        बेटी! मेरे द्वार पर ही दूब जन्मी थी पर मंडप में उसकी टहनियां फैलीं और विकसित हुई। अर्थात तुम जन्मी तो थी मेरे घर में ही पर मंडप में ही तुम्हें पति को सौंपा गया है पति के साथ ही तुम्हें विकसित और फलवती होना है।

        उसका पति काला है पर उसका रंग स्वर्ण के समान है वह कहती है पिताजी! तुमने ठीक ही मंडप जैसे उपर्युक्त स्थान में विकसित और फलवती होने के लिए मुझे पति को सौंपा पर मुझ सी सुन्दरी को काले वर के हाथ क्यों सौंपा।

        सोनमा ऐसन धिया हरल जी बाबूजी
        कार वर हथुन दमाद जी।

        वस्तुतः कन्या सुन्दर वर चाहती है पर पिता का उत्तर है- बेटी! वर का मूल्यांकन गुण और समृद्धि से होता है न कि रूप से भगवान श्री राम भी तो काले ही थे।

        कारहिं कार जानि घोसिह गे बेटी
        कार अयोध्या सिरी राम हे
        कार के छतिया चनन सोभई बेटी
        तिलक सोभई लिलार हे।

        कहने की जरूरत नहीं कि विवाह के प्रसंग पर पिता पुत्री के ऐसे मुखर संवाद नहीं होते इस वर्णन में उनकी भावनाओं को ही अभिव्यक्ति दी गयी है।

        मंडप निर्माण के दिन हल्दी चढ़ाने की विधि होती है इस विधि सम्बद्ध इस गीत में पारिवारिक व्यंजना नहीं है

        कहमांहि हरदी जनम लेले
        कहमांहि लेल बसेर हरदिया मन भावे
        कुरखेत हरदी जनम लेल
        मड़वा में लेल बसेर हरदिया मन भावे

        पहिले चढ़ावथि सिरी गुरू बराहमन
        तब चढ़ावे सब लोग हरदिया मन भावे।

        कन्यादान के समय गाये जाने वाले गीतों में यह गीत करूण रस से ओत-प्रोत है अब पिता ब्राह्मण और सभी परिजन कन्यादान की व्यथा से करूण हो उठे हैं।

        कुंस लेले कांपथि बेटी के बाबा
        कइसे करव धियादान है।

        सिन्दूरदान के पूर्व अग्निकुंड के पास कन्या का भाई धन या धन का लावा बहन के हाथों में देता है जिन्हें वह अपने पति के हाथ में गिरा देती है और  वह बिखेर देता है इस अवसर का गीत बड़ा करूण है।

        लावा न छिटहू कउन भईया
        बहिनी तोहार हे,
        अंगूठा न ध्रहुं कउन दुल्हा
        सुगवा तोहार हे।

        लावा छींटने की लौकिक विधि में गंभीर अर्थ भरा दिखाई देता है सम्भवतः भाई बहन की अंजली धन से कई बार इस भाव से भरता है कि पिता के बाद इस घर में मेरा प्रभुत्व होगा, तुम जब-जब आओगी तुम्हारा उचित सत्कार होता रहेगा।

        सिन्दूर दान के बाद कन्या पूर्णतः पराई हो जाती है, इसलिए लौकिक विधि में इसका बहुत महत्व दिया जाता है। सिन्दूरदान का दृश्य जितना कारूणिक होता है उतना ही सम्बद्ध गीत भी।

        चुटकी भर लिहलन सिन्दुरवा
        सोहगइलवा बेसाहल हे
        दुल्हा भरी दिहलन धनी के मांग
        अब धनी आपन हे।

कन्या को नैहर की एक-एक वस्तु से स्नेह है पर आज वह सबको छोड़ कर चली जा रही है लोग विछोह से आंखों में आंसू भरे चुप-खामोश हैं। कन्या भी परिजन विछोह के कारण रो उठती है।

        छूटि गेल भाई से भतिजवा
        आउर घर नईहर हे
        अब हम परलूं पराया हाथ
        सिन्दूर दान भइल हे।

कन्यादान का समय बड़ा मर्मस्पर्शी होता है। इस समय कन्या के लिए सहे हुए सारे कष्ट एक-एक कर याद आते हैं। दूसरी ओर भावी कन्या विछोह की कल्पना में न केवल परिजन रोते हैं बल्कि कन्या की संगी साथी टोला-पड़ोस के लोग भी रोने लगते है।

        जाहि दिन अगे बेटी तोहरे जनम भेल
        नयनमां न आयल सुखनीन हे
        नीन न आवे बेटी भूखो न आवे
        तारा गिनत भेल विहान हे।

कष्ट के दिन बीत गए कन्यादान की घड़ी है पर यह घड़ी भी कम दुख नहीं दे रही है गुड्डे और गुड़िया टोला-पड़ोस सभी रो रहें हैं हाय! वन की कोयल चली जा रही है।

        आल में ताख पर गुड़िया रोबे
        रोबे लगल टोलवा पड़ोस हे
        जौरे-जौरे रोवथि बाबा दुलरइतों बाबा
        वन के कोयल चलल जाए हे।

कन्या के घर गाये जाने वाले गीतों में विदाई गीत सर्वाधिक मार्मिक एवं कारूणिक होता है  प्रायः सभी भारतीय भाषाओं के गीत मे ऐसा है करूण रस से ओत-प्रोत यह गीत-

        केकर रोवल गंगा बही गेलई, केकर रोवल समुन्दर हे
        केकर रोवल भिंजलई चदरिया, केकर अंखिया न लोर हे 
        अम्मा के रोवल गंगा बही गेलई, बाबू जी के रोवल समुन्दर हे
        भईया के रोवल भिंजलई चदरिया, भउजी के अंखिया न लोर हे,
        अम्मा कहे बेटी रोज-रोज अइह, बाबूजी कहे छव मास हे
        भईया कहे बहिनी काज परोजन भउजी कहे दूरि जाउ हे।

        भाभी-ननद की प्रतिद्वंदिता सर्वविदित है, अतः उसका इस अवसर पर शोक मग्न न होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है पर ऐसी भाभियों का अभाव भी नहीं, जो ननद के प्रति सारे वैर भावों को भुलाकर विदाई के समय मोह और स्नेह दिखलाती है-

   भउजीजे बानहथि खोइंछा आचार विलमावथी हे
   आज भवन मोर सूना भेल ननदी पाहुन भेलन हे।

        इस प्रकार अपने मायके के सारे स्नेह भावों को त्यागती हुई बेटी ससुराल चली जाती है जहां वह जीवन भर अपने पति को सहयोग देती हुई बेटी से पत्नी और पत्नी से माँ बनकर नारी जीवन को सार्थक करती है।

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