मगही लोकगीतों में संतान लालसा

         मगही लोकगीतों में संतान लालसा
                                    सुधाकर राजेन्द्र
                                                      9431083378

    लोक साहित्य में लोक गीत लोक जीवन के धरोहर हैं, इसमें जीवन के विविध उपकर्मों का आह्लादक चित्रण मिलता है। इन उपकर्मो में संतान लालसा भी प्रमुख है। एक दोहवती अपने गर्भ धरणा की घटना को बड़े संयत एवं शिष्ट भाव से मगही गीत सोहर में कह उठती है।
‘‘अगहन मासे बाबा मोर शादी कयलन
माघ मासे विदा कयलन हे,
ललना सावन मासे स्वामी चरन छुअली
देह मोर भारी भइले हे।’’
अगहन माह में बाबा ने शादी कर दी। माघ माह में ससुराल के लिए विदा किया और सावन माह में स्वामी के चरण स्पर्श से उसका देह भारी हो गया अर्थात वह दोहवती हो गयी। पर दोहवती और उसके परिजनों की हार्दिक इच्छा होती है पुत्रा रत्न की प्राप्ति। कहीं उसे पुत्री रत्न की प्राप्ति हुर्इ तो दोहवती के साथ उसके समस्त परिजनों के उल्लास उछाह आनन्द और उमंग मन्द पड़ जाते हैं। तभी तो पुत्र और पुत्री के जन्म में विभेद करती हुर्इ एक दोहवती डगरीन से कह उठती है-
‘‘डगरिन जब मोरा होयतो बेटवा
कान दुनो सोना देवो हे,
डगरिन जब मोरा होयतो लछमिनियाँ
पटोर पहिरायब हे’’
डगरिन को पुत्र के जन्म पर दोनों कान में सोने का आभूषण और पुत्री जन्म पर साड़ी देने की कामना से स्पष्ट है कि खुद गर्भवती माँ, पुत्र और पुत्री मे विभेद करती रही है। पुत्र जन्म से घर में जो उल्लास रहता है पुत्री जन्म से शोक में बदल जाता है। घर में विषाद का वातावरण छा जाता है। प्रसविनी की उपेक्षा तिरस्कार और अपमान शुरू हो जाता है। एक प्रसविनी के शब्दों में-
‘‘हमतो जानयती राम जी बेटा देतन
बेटिए जनम देलन हे,

ललना सेहु सुनि सासु रिसिआयल
मुख नहीं बोलत हे।
ननदो मोर गरिआवे गोतिनी लुलुआवय हे
ललना सेहु सुनि स्वामी रिसिआयल
मुँह पफेरी बर्इठल हे।
सासु जी तरबो चटर्इया नहीं दिहलन
पलंग मोर छीनी लेलन हे,
ललना एक डगरिन मोर माय
से कर लागी बइठल हे।’’
दोहवती की कामना थी कि भगवान उसे पुत्र रत्न देंगे पर जन्म हुआ कन्या रत्न का। पुत्री का जन्म सुनते ही सास ने गुस्से से मुह फेर कर बोलना बंद कर दिया। ननदें गाली देने लगी। गोतनी बुरा भला कहने लगी। पति भी मुँह मोड़ कर चल दिया। प्रसवकाल में एक मात्रा सहयोगिनी डगरिन, माय बन कर उसकी सेवा करती रही। यह है पुत्री जनने का परिणाम।

     मगही, मैथिली, भोजपुरी और राजस्थानी आदि भारतीय भाषाओं के लोकगीतों में पुत्री जन्म से ऐसे विषाद् पूर्ण वातावरण का चित्रण मिलता है। भाषा की विभिन्नता होते हुए भी विभिन्न भाषा भाषी जनपदों में सामाजिक जीवन की एकरूपता मौजूद है। किंतु पुत्र और पुत्री के जन्म में यही विभेद आज समाज विज्ञानियों के लिए गहन चिंता का विषय है        

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