लोक नृत्यों के नये आयाम
सुधाकर राजेन्द्र
9431083378
भारत में विविध संस्कृतियों का संगम हुआ है और उसी के अनुरूप हर प्रदेश के
अपने-अपने लोक नृत्य हैं। बिहार और
झारखंड इन लोक नृत्यों के संदर्भ में समृद्ध है। यहाँ के लोक नृत्यों का अपना अलग आकर्षण है। जो समय के अंतराल के साथ आज
भी परिवर्तित नहीं हुआ है। बल्कि दिन-प्रतिदिन इसमें एक नया सौन्दर्य बोध ही उजागर हो रहा है। यहाँ के प्रसिद्ध छोटानागपुरी, आदिवासी, संथाली आदि लोक नृत्य न केवल बिहार, झारखंड बल्कि पूरे देश में
प्रसिद्ध हैं।
राष्ट्रीय स्तर पर इन नृत्यों का प्रदर्शन विभिन्न अवसरों पर होता रहा है। बिहार
के लोक नृत्यों के संबंध में 18वीं सदी के यूरोपीय यात्री कॉफोर्ड ने
लिखा है कि बिहार वासी सारी रात नाचने-गाने और संगीत सुनने में
बिताते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि बिहार के लोक नृत्यों में अपनी परम्परागत
सादगी के कारण एक महत्वपूर्ण स्थान बना रखा है।
लोक नृत्यों की दृष्टि से
झारखंड का सर्वाधिक सम्पन्न क्षेत्र है. छोटानागपुरी और संथाल परगना। यहाँ के लोक नृत्यों में आदिवासी जीवन की लोक
संस्कृति मुखरित होती है। उरांव, संथाल, खरिया हो या मुंडा आदिवासियों के लोक नृत्यों
में स्त्री और पुरूष दोनो की बराबर साझेदारी होती है। ये सभी नृत्य समूह में होते
है। आदिवासी लोक नृत्यों का अंदाज सरहुल, करमा, जतरा, जयपुर, धुरिया और माटा जैसे नृत्य को देख कर लगाया जा
सकता है, जब जब सुरम्य वन प्रान्तों में
नन्हें -नन्हें गांवों में बसे आदिवासी हड़िया ( घर में बने विशेष प्रकार की शराब )
पी कर झूम-झूम कर नाचते है। वसंत ऋतु के आगमन के साथ ही उरांव और मुंडा आदिवासी सरहुल की
तैयारी में
जुट जाते है। वर्षा ऋतु की समाप्ति पर रांची-हजारीबाग के आदिवासी क्षेत्रों में ढ़ोल और मंदार की थाप पर करमा
गीतों और नृत्यों की टोलियां ठुमक उठती हैं। संथाली इसे करम परब कहते हैं।
इस अवसर पर नाचे-गाये जाने वाले गीतों में नारी के प्रति
पुरूषों के शाश्वत सनातन आकर्षण को अभिव्यक्त किया जाता है। इसी प्रकार नारी पक्ष
के नृत्य में पुरूषों की चितरंजन पुकार की अभिव्यक्ति होती है।
संथाल
परगना में संथाली आदिवासियों की संख्या अधिक है। प्रकृति की गोद में बसे इन भोले-भाले लोगों को नाच-गाने
का शौक विरासत में मिला हुआ है। इसमें समूचा परिवार
बिरादरी और गांव मिलकर नाचता है। माघी मंगडोल दसई बा
आदि
परब के समय
झोंका और डागा नृत्य
करते है। उरांव और मुंडा आदिवासियों में करमा के अतिरिक्त जंदुर और जतरा नृत्य भी
विशेष महत्व रखते है। जंदुर का पर्व सामान्यतः अप्रैल में मनाया
जाता है। आदिवासी नृत्यों में पुरूषों का भी एक नृत्य होता है जिसे पंका या
पैकिटा कहा जाता है। यह युद्ध नृत्य की तरह होता है। इसमें नर्तक परम्परागत
अस्त्र-शस्त्र से लैश होकर बड़ी तीव्र गति से नाचते
है। आदिवासी लोकनृत्यों में सबकी अपनी-अपनी
शैलियां है। प्रायः सभी आदिवासी नृत्यों में घेरा बनाकर नाचा जाता है। हाथ में हाथ
डालकर वृताकार घेरा बना लिया जाता है। सरहुल और करमा नृत्यों में अर्ध्द वृत में नाचते हुए गोलार्इ में घूमा जाता है। डोमकच और माथा- जैसे नागपुरिया उरांव नृत्यों में भी इस तरह गोल घेरे में नाचा जाता है। उरांव का घुरिया नृत्य इस पध्दति से थोड़ा हटकर है। इसमें केंद्र से परिधि तक पंक्ति बनार्इ जाती है। जो घड़ी की सूर्इ की तरह घुमती है। लगने नामक एक आदिवासी नृत्य में नाचते है। आदिवासी विवाहों में भी एक विशेष प्रकार का नृत्य किया जाता है। जिसे दोग कहा जाता है।
मिथिला में विद्यापति के पदों की गाकर नृत्य करने की एक विशेष शैली है।
जिसे ‘नाचारी’ कहा जाता है। इसके अतिरिक्त महिलाओं द्वारा झिझिया और संतरी एक विशेष प्रकार का नृत्य होता है। जिसमें स्त्री पुरूष मिलकर नाचते हैं। उत्तर बिहार तथा मिथिलांचल के अन्य लोक नृत्यों में रामलीला नृत्य कुंजवासी नृत्य, नारदी नृत्य, विदापद नृत्य और भगत नृत्य का भी नाम आता है। उत्तर और पूर्व बिहार में शिया मुसलमानों का भी एक विशेष लोक नृत्य है। जिसे झरनी कहा जाता है। इसे पुरूष ताजिया के साथ जाते हुए रास्ते में नाचते है।
बिहार के भोजपुर क्षेत्रा का बड़ा ही प्रसिद्ध नृत्य है विदेशिया जिसके जन्मतदाता भिखारी ठाकुर माने जाते है। जो अब संपूर्ण बिहार में विशेष लोक नृत्य का स्थान ग्रहण कर चुका है। ‘पवरिया’ भी भोजपुर क्षेत्रा का वैसा ही लोकनृत्य है।
मगध के लोक नृत्यों में जट-जटनी, श्यामा चकेवा का भी लोक नृत्यों के नाम से अभिहित किया जाता है। इसमें सभी जाति के लोक नाचते है। विवाह आदि के अवसरों पर ‘झुमर’ एवं सोहर आदि लोक नृत्य किये जाते है। इन नृत्यों के अलावे वगुली और चोहट भी मगध के प्रसिद्ध लोक नृत्य हैं। इस नृत्य में स्त्रियाँ दो दलों में विभक्त होकर पावस ऋतु में गाती और नाचती है। इन नृत्यों को देखने की अनुमति समान्यत: पुरूषों को नहीं दी जाती।
अन्त यह कह देना आवश्यक है कि बिहार के लोकनृत्यों में अन्य शास्त्रीय नृत्यों की तरह उंगलियों ओर चेहरों की भंगिमाओं से संकेत प्रदान नहीं किये जाते। इसमें केवल स्थूल संकेत ही होते है। पिफर भी यहाँ के लोकनृत्यों का एक अलग आकर्षण है। आज के युग में ही इसका महत्व तनिक भी कम नहीं हुआ। समय के साथ लोकनृत्यों की प्रति लोगों का मोह बढ़ा ही है। आज कल शहरी सभ्यता द्वारा भी इसे खूब सराहा जा रहा है। आज इसे और भी सजाने संवारने तथा नये आयाम देने की आवश्यकता है। ताकि बिहार की संस्कृतिक की मौलिक कला का निखार हो सके।
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