भारतेन्दु युग हिन्दी आलोचना का उद्भव काल है. रीतिकालीन संस्कृत ग्रंथों की परिपाटी को छोड़कर हिन्दी आलोचना इस काल में एक नवीन मार्ग पर अग्रसर रही. सूर-सूर तुलसी ससी उक्तियों में भक्तिकालीन आलोचना का रूप मिलता है. रीतिकाल में सैद्धानतिक और व्यवहारिक दोनों रूपों में आलोचना मिलती है. केशवदास की कवि प्रिया और रसिक प्रिया, सैद्धानतिक समीक्षा तथा बिहारी सतसई की टीकाओं में व्यवहारिक आलोचना देखी जा सकती है. हिन्दी आलोचना से पूर्व संस्कृत में अनेक आलोचना ग्रंथ लिए गए है.
          भारतेन्दु कालीन आलोचना तत्कालीन पत्र पत्रिकाओं के माध्यम से प्रकाश में आई आलोचना का सूत्रापात करने वाले इन पत्रों में कवि वचन सुधा, हरिशचन्द मैगजीन, हिन्दी प्रदीप, प्रमुख है. कवि वचन सुधा में भारतेन्दु हरिशचन्द ने हिन्दी कविता नामक पहला आलोचनात्क लेख लिखा या भारतेन्दु युग में साहित्यिक पुस्तकों की परिचयात्मक टिप्पनियों के रूप में आलोचनाएं प्रकाशित होती थी. सैद्धानतिक आलोचना का सूत्रापात भारतेन्दु की नाटक रचना से होता है, जिसमें युगानुकूल नाटक लिखने के सिद्धांतों का विवेचन है. नागरी प्रचारिणी पत्रिका के प्रकाशन से आलोचना के क्षेत्र में पहले से अधिक गम्भीरता आने लगी.  
          सरस्वती के सम्पादक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने आलोचना को एक नई दिशा प्रदान की. द्विवेदी जी संस्कृत के कवि कालिदास भवभूति तथा हिन्दी के सूर तुलसी भारतेन्दु तथा मैथिलीशरण गुप्त के प्रशसंक थे. उनकी आलोचना में भारतीय रस सिद्धांत का समर्थन तो है ही साथ ही नवीनता का भी समर्थन है. उनकी आलोचना गुणदोष विवेचन तक ही सीमित थी.
          द्विवेदी युग में मिश्र बन्धुओं ने हिन्दी नवरत्न तथा मिश्रबन्धु विनोद की रचना की इन रचनाकारों द्वारा हिन्दी में पहली बार ऐतिहासिक और सैद्धानतिक आलोचना का रूप सामने आया. मिश्रबंधुओं ने हिन्दी नवरत्न में देव को बिहारी से श्रेष्ठ माना है. इससे प्रेरणा पाकर द्विवेदी युग में तुलनात्मक आलोचना का जन्म हुआ.
          पंडित पद्यमसिंह शर्मा ने बिहारी नामक रचना में बिहारी को श्रृंगार रस का सर्वश्रेष्ठ कवि माना है. तदुपरान्त कृष्ण बिहारी मिश्र ने देव और बिहारी नामक पुस्तक लिखकर देव को श्रेष्ठ माना किन्तु लाल भगवान दीन ने बिहारी और देव लिखकर इसका विरोध किया. इस प्रकार रामचन्द शुक्ल  से पूर्व हिन्दी आलोचना जगत देव बिहारी द्वन्द का अखाड़ा बना रहा.
          आचार्य रामचन्द्र शुक्ल हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ आलोचक है. इनसे पूर्व आलोचना का कोई आदर्श स्थापित नहीं था. आचार्य शुक्ल एक सुनिश्चित मानदंड और एक विकसित आलोचना पद्धति  लेकर अवतरित हुए. आचार्य शुक्ल के आलोचना के तीन रूप हैं- सैद्धानतिक आलोचना के तहत उनके चिन्तामणि तथा रस मीमांसा के लेख है. ऐतिहासिक आलोचना के क्षेत्र में उनका हिन्दी साहित्य का इतिहास एक महत्वपूर्ण देन है. इतिहास के क्षेत्रा में शुक्ल जी का दृष्टिकोण पर्याप्त वैज्ञानिक है. तुलसीदास, सूरदास, जायसी आदि ग्रंथों की भूमिकाएं व्यवहारिक समीक्षा के उदाहरण है. शुक्ल जी की समीक्षा पद्धति में उनके व्यक्तित्व की विशिष्टता नैतिक दृष्टिकोण आदर्श वादिता, मौलिक चिन्तन और गंभीर अध्ययन की झलक है.
          आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के समकालीन आलोचकों में डॉ श्यामसुन्दर दास, पदुमलाल, पन्नालाल वख्शी, गिरिदत्त शुक्ल, कृष्णशंकर शुक्ल आदि का नाम उल्लेखनीय है. द्विवेदी युगीन आलोचना की त्रुटियों को दूर करते हुए शुक्ल जी ने आलोचना पद्धति को पूर्ण बनाया. शुक्ल जी के परवर्ती आलोचकों ने सामान्यतः शुक्ल जी के आदर्शों को अपनाया है. किन्तु कुछ प्रतिभावान आलोचकों ने इस क्षेत्र में अपनी मौलिकता का परिचय दिया. ऐसे आलोचकों में नन्द दुलारे बाजपेयी, डॉ नागेन्द्र तथा आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का नाम प्रमुख है.
          आचार्य नन्द दुलारे बाजपेयी की महाकवि सूरदास जयशंकर प्रसाद, महाकवि निराला, आधुनिक हिन्दी साहित्य, हिन्दी साहित्य, बीसवी शताब्दी, नया साहित्य नये प्रश्न, आदि कई महत्वपूर्ण आलोचनात्मक रचनाएं है. आचार्य बाजपेयी सौन्दर्यवादी आलोचक हैं.
          डॉ नागेन्द्र नन्द दुलारे बाजपेयी की तरह छायावाद के प्रति सहानुभूति रखने वाले समालोचक है. ये सौंदर्य शास्त्र को लेकर आलोचना क्षेत्रा में प्रवेश किए. सुमित्रानन्दन पंत, साकेत, भारतीय काव्यशास्त्र की परम्परा, महाकवि देव, रीतिकाव्य की भूमिका, रस सिद्धांत आदि उनकी समीक्षात्मक कृतियां है. रस सिद्धांत नागेन्द्र के साहित्य चिन्तन की सर्वोत्तम उपलब्धी हैं. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी मानवतावादी समालोचक है. हिन्दी साहित्य की भूमिका कबीर, हिन्दी साहित्य का आदिकाल, विचार और वितर्क, कल्पलता और अशोक के फूल आदि रचनाओं में द्विवेदी जी ने ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से आलोचना को आगे बढ़ाया है. द्विवेदी जी की लोक जीवन में अटूट आस्था थी.
          साहित्यिक समीक्षा को प्रोढ़ रूप देने में आचार्य नन्द दुलारे बाजपेयी, डॉ नागेन्द्र और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के अतिरिक्त बाबू गुलाब राय शांति प्रिय द्विवेदी, डॉ रामकुमार वर्मा, पंडित विश्वनाथ मिश्र, डॉ सत्येन्द्र, डॉ कृष्णलाल, आचार्य परशुराम चर्तुवेदी, डॉ वार्ष्णेय एवं आचार्य वलदेव उपाध्याय का नाम भी महत्वपूर्ण है।
          बाबू गुलाबराय समन्वयवादी समालोचक थे. सिद्धांत और अध्ययन तथा काव्य के रूप में उनके समन्यवादी रूप दृष्टि गोचर होता है. शांतिप्रिय द्विवेदी ने छायावादी काव्य के सौंदर्य पक्ष का उद्घाटन किया है. पंडित विश्वनाथ मिश्र रीति कालीन काव्य के समर्थक आलोचक है. परशुराम चर्तुवेदी सन्तकाव्य के आलोचक है. डॉ कृष्णलाल डॉ वार्ष्णेय और रामकुमार वर्मा ने हिन्दी साहित्य पर प्रमाणिक कार्य किया है. डॉ सत्येन्द्र का लोक साहित्य की ओर झूकाव है. आचार्य बलदेव उपाध्याय भारतीय काव्य सम्प्रदायों की आलोचना प्रस्तुत की है.

          आधुनिक युग में विविध् समीक्षा पद्धति का विकास हुआ है. जिसमें शिवदान सिंह चौहान, रामविलास शर्मा, प्रकाशचन्द्र गुप्त, अमृतराय, यशपाल आदि मार्क्सवादी आलोचक हैं. इलाचन्द्र जोशी तथा अज्ञेय ने मानों विश्लेषनात्मक आलोचनाएं प्रस्तुत की हैं. प्रभाववादी आलोचकों में शांतिप्रिय  दिवेदी, भगवत शरण उपाघ्याय का नाम प्रमुख है. आधुनिक समीक्षाओं में डॉ इन्द्रनाथ मदान, डॉ रमेश कुंतल मेघ, लक्ष्मी कान्त वर्मा, रामस्वरूप चर्तुवेदी, जगदीश चन्द्र माथुर आदि का नाम महत्वपूर्ण है. इस प्रकार हिन्दी आलोचना प्रगति पथ पर अग्रसर है क्योंकि इस क्षेत्रा में तीव्रता से काम हो रहा है.
बिहार राज्य में मगही मैथिली और भोजपुरी आदि क्षेत्रीय बोलियों के साथ हिन्दी की समस्या भी अति महत्वपूर्ण हैं। बिहार की किसी भी क्षेत्रीय भाषा के साथ हिन्दी की प्रतिद्वन्दिता नहीं हैं। वे एक दूसरे के पूरक और सहयोगी हैं। बिहार की विभिन्न क्षेत्रीय भाषाओं के विकास के लिए राष्ट्रभाषा का सहयोग अनिवार्य है। इन क्षेत्रीय भाषाओं और बोलियों के विकास के लिए बिहार सरकार ने मगही अकादमी , भोजपुरी अकादमी और मैथिली अकादमी की स्थापना कर एक सराहनीय कार्य किया है। इन अकादमियों द्वारा  अनेक महत्वपूर्ण पुस्तकों का प्रकाशन हुआ है। लेकिन ये संस्थाएं हिन्दी भाषा के उपघातक नहीं हैं। ये भाषाएं और बोलियां हिन्दी की सहयोगी बहनें हैं।
          बिहार सरकार ने यह निश्चय किया कि देवनागरी लिपि में लिखित भाषा हिन्दी बिहार की राजभाषा होगी। फलतः एक परामर्श मंडल समिति का गठन किया गया और अब तक इस समिति के परामर्श से हिन्दी का सर्वाधिक प्रयोग राजभाषा के रूप में किया जा रहा है। बिहार की कचहरियों में भी हिन्दी का प्रयोग किया जा रहा है। थानों में प्राथमिक सूचना लिखने के लिए हिन्दी भाषा और देवनागरी लिपि का प्रयोग अनिवार्य है। निबंधन कार्यालयों में भी पूरे राज्य में हिन्दी लिखने का आदेश है। बिहार राज्य के सभी पंचायतों के साथ राजकीय पत्र व्यवहार हिन्दी भाषा के माध्यम से होता है। शिक्षण संस्थानों के निरीक्षण के विवरण हिन्दी में लिखने के आदेश दिए गए हैं। बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, हिन्दी साहित्य सम्मेलन, हिन्दी ग्रंथ अकादमी और राजभाषा कार्यालय तथा बिहार राज्य के पुस्तकालय अधीक्षक हिन्दी में हीं पत्र व्यवहार करते हैं। बिहार विधानसभा और विधान परिषद में पूछे जाने वाले प्रश्नों और विचार के लिए संकल्पों और प्रस्तावों की सूचनाएं हिन्दी में ही दिए जाते हैं। बिहार के राज्यपाल और मंत्रीगण के भाषण भी हिन्दी में ही होते हैं। बिहार सरकार के विभिन्न विभागों द्वारा प्रकाशित पत्र पत्रिकाओं का भी प्रकाशन हिन्दी में ही हो रहा है।
          बिहार सरकार ने अधिकांश विभागों का सभी कार्य हिन्दी में ही सम्पादित करना अनिवार्य कर दिया है। अहिन्दी भाषा-भाषी सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों को हिन्दी में प्रशिक्षण देने के लिए अनेक प्रशिक्षण केन्द्र भी खोले गए हैं। बिहार की हिन्दी पत्र-पत्रिकाएं और साहित्यकारों ने हिन्दी के विकास के लिए अनेक महत्वपूर्ण कार्य किए हैं। बिहार के हिन्दी प्रेमियों ने हिन्दी को एक मजबूत आधर देने का कार्य किया है। समग्र हिन्दी जगत बिहार के सदप्रयास को स्वीकारता है। आज बिहार राज्य में हिन्दी का भविष्य अति उज्जवल प्रतीत हो रहा है।


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लोक जीवन में लोकगीतों का महत्वपूर्ण स्थान है कारण मानव जीवन का कोई ऐसा पक्ष नहीं जो इससे अछूता रह गया हो। लोकगीतों की रचना का आरम्भ कब हुआ इसका तिथि निरूपण संभव नहीं लगता है इसके बारे में इतना ही कहा जा सकता है कि जबसे पृथ्वी पर मानव का अस्तित्व आया तभी से उसके मुख से गीत भी फूटने लगे ये गीत हर्ष-विषाद जीवन-मरण आदि के समय अभिन्न रूप से मुखरित होते रहे हैं लोकगीतों की यह धारा विधा भाषाओं में प्राप्त परम्पराओं के रूप में प्रवाहित होती चली आ रही है और अनन्त काल तक प्रवाहित होती रहेगी। लोक गीतों में विवाह गीत का भी महत्वपूर्ण स्थान है। विवाह गीत विवाह के विधी-विधान के आधर पर गाये जाते हैं जिसमें मंडप निर्माण कन्यादान सिन्दूर दान और विदाई आदि के अनेक उदाहरण हैं जिसमें इस प्रकार के विधान विशेष का उल्लेख हुआ है।

        मंडप बनाने के समय एक गीत गाया जाता है जिसमें मंडप के महत्व के वर्णन के साथ पति-पत्नी के संबंधों का भी विश्लेषण होता है कन्या अपने पिता से कहती है-

        कहमांहि दुनिया जनम गेल जी बाबूजी
        कहमांहि परसल डाढ़ हे।

        बाबूजी! दूब कहां जन्म लेती है और उसकी टहनियां कहां फैलती हैं, इस प्रकार मैंने जन्म लिया कहां तुम्हारे घर और विकसना तथा फूलना-फलना है दूसरे के घर। पिता का उत्तर है-

        दुअराहिं दुनिया जनम गेल गे बेटी
        मड़वा हीं पसरल डाढ़ हे।

        बेटी! मेरे द्वार पर ही दूब जन्मी थी पर मंडप में उसकी टहनियां फैलीं और विकसित हुई। अर्थात तुम जन्मी तो थी मेरे घर में ही पर मंडप में ही तुम्हें पति को सौंपा गया है पति के साथ ही तुम्हें विकसित और फलवती होना है।

        उसका पति काला है पर उसका रंग स्वर्ण के समान है वह कहती है पिताजी! तुमने ठीक ही मंडप जैसे उपर्युक्त स्थान में विकसित और फलवती होने के लिए मुझे पति को सौंपा पर मुझ सी सुन्दरी को काले वर के हाथ क्यों सौंपा।

        सोनमा ऐसन धिया हरल जी बाबूजी
        कार वर हथुन दमाद जी।

        वस्तुतः कन्या सुन्दर वर चाहती है पर पिता का उत्तर है- बेटी! वर का मूल्यांकन गुण और समृद्धि से होता है न कि रूप से भगवान श्री राम भी तो काले ही थे।

        कारहिं कार जानि घोसिह गे बेटी
        कार अयोध्या सिरी राम हे
        कार के छतिया चनन सोभई बेटी
        तिलक सोभई लिलार हे।

        कहने की जरूरत नहीं कि विवाह के प्रसंग पर पिता पुत्री के ऐसे मुखर संवाद नहीं होते इस वर्णन में उनकी भावनाओं को ही अभिव्यक्ति दी गयी है।

        मंडप निर्माण के दिन हल्दी चढ़ाने की विधि होती है इस विधि सम्बद्ध इस गीत में पारिवारिक व्यंजना नहीं है

        कहमांहि हरदी जनम लेले
        कहमांहि लेल बसेर हरदिया मन भावे
        कुरखेत हरदी जनम लेल
        मड़वा में लेल बसेर हरदिया मन भावे

        पहिले चढ़ावथि सिरी गुरू बराहमन
        तब चढ़ावे सब लोग हरदिया मन भावे।

        कन्यादान के समय गाये जाने वाले गीतों में यह गीत करूण रस से ओत-प्रोत है अब पिता ब्राह्मण और सभी परिजन कन्यादान की व्यथा से करूण हो उठे हैं।

        कुंस लेले कांपथि बेटी के बाबा
        कइसे करव धियादान है।

        सिन्दूरदान के पूर्व अग्निकुंड के पास कन्या का भाई धन या धन का लावा बहन के हाथों में देता है जिन्हें वह अपने पति के हाथ में गिरा देती है और  वह बिखेर देता है इस अवसर का गीत बड़ा करूण है।

        लावा न छिटहू कउन भईया
        बहिनी तोहार हे,
        अंगूठा न ध्रहुं कउन दुल्हा
        सुगवा तोहार हे।

        लावा छींटने की लौकिक विधि में गंभीर अर्थ भरा दिखाई देता है सम्भवतः भाई बहन की अंजली धन से कई बार इस भाव से भरता है कि पिता के बाद इस घर में मेरा प्रभुत्व होगा, तुम जब-जब आओगी तुम्हारा उचित सत्कार होता रहेगा।

        सिन्दूर दान के बाद कन्या पूर्णतः पराई हो जाती है, इसलिए लौकिक विधि में इसका बहुत महत्व दिया जाता है। सिन्दूरदान का दृश्य जितना कारूणिक होता है उतना ही सम्बद्ध गीत भी।

        चुटकी भर लिहलन सिन्दुरवा
        सोहगइलवा बेसाहल हे
        दुल्हा भरी दिहलन धनी के मांग
        अब धनी आपन हे।

कन्या को नैहर की एक-एक वस्तु से स्नेह है पर आज वह सबको छोड़ कर चली जा रही है लोग विछोह से आंखों में आंसू भरे चुप-खामोश हैं। कन्या भी परिजन विछोह के कारण रो उठती है।

        छूटि गेल भाई से भतिजवा
        आउर घर नईहर हे
        अब हम परलूं पराया हाथ
        सिन्दूर दान भइल हे।

कन्यादान का समय बड़ा मर्मस्पर्शी होता है। इस समय कन्या के लिए सहे हुए सारे कष्ट एक-एक कर याद आते हैं। दूसरी ओर भावी कन्या विछोह की कल्पना में न केवल परिजन रोते हैं बल्कि कन्या की संगी साथी टोला-पड़ोस के लोग भी रोने लगते है।

        जाहि दिन अगे बेटी तोहरे जनम भेल
        नयनमां न आयल सुखनीन हे
        नीन न आवे बेटी भूखो न आवे
        तारा गिनत भेल विहान हे।

कष्ट के दिन बीत गए कन्यादान की घड़ी है पर यह घड़ी भी कम दुख नहीं दे रही है गुड्डे और गुड़िया टोला-पड़ोस सभी रो रहें हैं हाय! वन की कोयल चली जा रही है।

        आल में ताख पर गुड़िया रोबे
        रोबे लगल टोलवा पड़ोस हे
        जौरे-जौरे रोवथि बाबा दुलरइतों बाबा
        वन के कोयल चलल जाए हे।

कन्या के घर गाये जाने वाले गीतों में विदाई गीत सर्वाधिक मार्मिक एवं कारूणिक होता है  प्रायः सभी भारतीय भाषाओं के गीत मे ऐसा है करूण रस से ओत-प्रोत यह गीत-

        केकर रोवल गंगा बही गेलई, केकर रोवल समुन्दर हे
        केकर रोवल भिंजलई चदरिया, केकर अंखिया न लोर हे 
        अम्मा के रोवल गंगा बही गेलई, बाबू जी के रोवल समुन्दर हे
        भईया के रोवल भिंजलई चदरिया, भउजी के अंखिया न लोर हे,
        अम्मा कहे बेटी रोज-रोज अइह, बाबूजी कहे छव मास हे
        भईया कहे बहिनी काज परोजन भउजी कहे दूरि जाउ हे।

        भाभी-ननद की प्रतिद्वंदिता सर्वविदित है, अतः उसका इस अवसर पर शोक मग्न न होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है पर ऐसी भाभियों का अभाव भी नहीं, जो ननद के प्रति सारे वैर भावों को भुलाकर विदाई के समय मोह और स्नेह दिखलाती है-

   भउजीजे बानहथि खोइंछा आचार विलमावथी हे
   आज भवन मोर सूना भेल ननदी पाहुन भेलन हे।

        इस प्रकार अपने मायके के सारे स्नेह भावों को त्यागती हुई बेटी ससुराल चली जाती है जहां वह जीवन भर अपने पति को सहयोग देती हुई बेटी से पत्नी और पत्नी से माँ बनकर नारी जीवन को सार्थक करती है।
         मगही लोकगीतों में संतान लालसा
                                    सुधाकर राजेन्द्र
                                                      9431083378

    लोक साहित्य में लोक गीत लोक जीवन के धरोहर हैं, इसमें जीवन के विविध उपकर्मों का आह्लादक चित्रण मिलता है। इन उपकर्मो में संतान लालसा भी प्रमुख है। एक दोहवती अपने गर्भ धरणा की घटना को बड़े संयत एवं शिष्ट भाव से मगही गीत सोहर में कह उठती है।
‘‘अगहन मासे बाबा मोर शादी कयलन
माघ मासे विदा कयलन हे,
ललना सावन मासे स्वामी चरन छुअली
देह मोर भारी भइले हे।’’
अगहन माह में बाबा ने शादी कर दी। माघ माह में ससुराल के लिए विदा किया और सावन माह में स्वामी के चरण स्पर्श से उसका देह भारी हो गया अर्थात वह दोहवती हो गयी। पर दोहवती और उसके परिजनों की हार्दिक इच्छा होती है पुत्रा रत्न की प्राप्ति। कहीं उसे पुत्री रत्न की प्राप्ति हुर्इ तो दोहवती के साथ उसके समस्त परिजनों के उल्लास उछाह आनन्द और उमंग मन्द पड़ जाते हैं। तभी तो पुत्र और पुत्री के जन्म में विभेद करती हुर्इ एक दोहवती डगरीन से कह उठती है-
‘‘डगरिन जब मोरा होयतो बेटवा
कान दुनो सोना देवो हे,
डगरिन जब मोरा होयतो लछमिनियाँ
पटोर पहिरायब हे’’
डगरिन को पुत्र के जन्म पर दोनों कान में सोने का आभूषण और पुत्री जन्म पर साड़ी देने की कामना से स्पष्ट है कि खुद गर्भवती माँ, पुत्र और पुत्री मे विभेद करती रही है। पुत्र जन्म से घर में जो उल्लास रहता है पुत्री जन्म से शोक में बदल जाता है। घर में विषाद का वातावरण छा जाता है। प्रसविनी की उपेक्षा तिरस्कार और अपमान शुरू हो जाता है। एक प्रसविनी के शब्दों में-
‘‘हमतो जानयती राम जी बेटा देतन
बेटिए जनम देलन हे,

ललना सेहु सुनि सासु रिसिआयल
मुख नहीं बोलत हे।
ननदो मोर गरिआवे गोतिनी लुलुआवय हे
ललना सेहु सुनि स्वामी रिसिआयल
मुँह पफेरी बर्इठल हे।
सासु जी तरबो चटर्इया नहीं दिहलन
पलंग मोर छीनी लेलन हे,
ललना एक डगरिन मोर माय
से कर लागी बइठल हे।’’
दोहवती की कामना थी कि भगवान उसे पुत्र रत्न देंगे पर जन्म हुआ कन्या रत्न का। पुत्री का जन्म सुनते ही सास ने गुस्से से मुह फेर कर बोलना बंद कर दिया। ननदें गाली देने लगी। गोतनी बुरा भला कहने लगी। पति भी मुँह मोड़ कर चल दिया। प्रसवकाल में एक मात्रा सहयोगिनी डगरिन, माय बन कर उसकी सेवा करती रही। यह है पुत्री जनने का परिणाम।

     मगही, मैथिली, भोजपुरी और राजस्थानी आदि भारतीय भाषाओं के लोकगीतों में पुत्री जन्म से ऐसे विषाद् पूर्ण वातावरण का चित्रण मिलता है। भाषा की विभिन्नता होते हुए भी विभिन्न भाषा भाषी जनपदों में सामाजिक जीवन की एकरूपता मौजूद है। किंतु पुत्र और पुत्री के जन्म में यही विभेद आज समाज विज्ञानियों के लिए गहन चिंता का विषय है