
भारतेन्दु कालीन आलोचना तत्कालीन पत्र
पत्रिकाओं के माध्यम से प्रकाश में आई आलोचना का सूत्रापात करने वाले इन पत्रों
में कवि वचन सुधा, हरिशचन्द मैगजीन, हिन्दी प्रदीप, प्रमुख है. कवि वचन सुधा में भारतेन्दु हरिशचन्द ने हिन्दी कविता नामक पहला
आलोचनात्क लेख लिखा या भारतेन्दु युग में साहित्यिक पुस्तकों की परिचयात्मक
टिप्पनियों के रूप में आलोचनाएं प्रकाशित होती थी. सैद्धानतिक आलोचना का सूत्रापात
भारतेन्दु की नाटक रचना से होता है, जिसमें युगानुकूल नाटक लिखने के सिद्धांतों का विवेचन है.
नागरी प्रचारिणी पत्रिका के प्रकाशन से आलोचना के क्षेत्र में पहले से अधिक गम्भीरता
आने लगी.
सरस्वती के सम्पादक आचार्य महावीर
प्रसाद द्विवेदी ने आलोचना को एक नई दिशा प्रदान की. द्विवेदी जी संस्कृत के कवि
कालिदास भवभूति तथा हिन्दी के सूर तुलसी भारतेन्दु तथा मैथिलीशरण गुप्त के प्रशसंक
थे. उनकी आलोचना में भारतीय रस सिद्धांत का समर्थन तो है ही साथ ही नवीनता का भी
समर्थन है. उनकी आलोचना गुणदोष विवेचन तक ही सीमित थी.
द्विवेदी युग में मिश्र बन्धुओं ने
हिन्दी नवरत्न तथा मिश्रबन्धु विनोद की रचना की इन रचनाकारों द्वारा हिन्दी में
पहली बार ऐतिहासिक और सैद्धानतिक आलोचना का रूप सामने आया. मिश्रबंधुओं ने हिन्दी
नवरत्न में देव को बिहारी से श्रेष्ठ माना है. इससे प्रेरणा पाकर द्विवेदी युग में
तुलनात्मक आलोचना का जन्म हुआ.
पंडित पद्यमसिंह शर्मा ने बिहारी नामक
रचना में बिहारी को श्रृंगार रस का सर्वश्रेष्ठ कवि माना है. तदुपरान्त कृष्ण
बिहारी मिश्र ने देव और बिहारी नामक पुस्तक लिखकर देव को श्रेष्ठ माना किन्तु लाल
भगवान दीन ने बिहारी और देव लिखकर इसका विरोध किया. इस प्रकार रामचन्द शुक्ल से पूर्व हिन्दी आलोचना जगत देव बिहारी द्वन्द
का अखाड़ा बना रहा.
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल हिन्दी के
सर्वश्रेष्ठ आलोचक है. इनसे पूर्व आलोचना का कोई आदर्श स्थापित नहीं था. आचार्य
शुक्ल एक सुनिश्चित मानदंड और एक विकसित आलोचना पद्धति लेकर अवतरित हुए. आचार्य शुक्ल के आलोचना के तीन
रूप हैं- सैद्धानतिक आलोचना के तहत उनके चिन्तामणि तथा रस मीमांसा के लेख है.
ऐतिहासिक आलोचना के क्षेत्र में उनका हिन्दी साहित्य का इतिहास एक महत्वपूर्ण देन
है. इतिहास के क्षेत्रा में शुक्ल जी का दृष्टिकोण पर्याप्त वैज्ञानिक है.
तुलसीदास,
सूरदास, जायसी आदि ग्रंथों की भूमिकाएं व्यवहारिक समीक्षा के उदाहरण
है. शुक्ल जी की समीक्षा पद्धति में उनके व्यक्तित्व की विशिष्टता नैतिक दृष्टिकोण
आदर्श वादिता, मौलिक
चिन्तन और गंभीर अध्ययन की झलक है.
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के समकालीन
आलोचकों में डॉ श्यामसुन्दर दास, पदुमलाल, पन्नालाल वख्शी, गिरिदत्त शुक्ल, कृष्णशंकर शुक्ल आदि का नाम उल्लेखनीय है. द्विवेदी युगीन
आलोचना की त्रुटियों को दूर करते हुए शुक्ल जी ने आलोचना पद्धति को पूर्ण बनाया.
शुक्ल जी के परवर्ती आलोचकों ने सामान्यतः शुक्ल जी के आदर्शों को अपनाया है.
किन्तु कुछ प्रतिभावान आलोचकों ने इस क्षेत्र में अपनी मौलिकता का परिचय दिया.
ऐसे आलोचकों में नन्द दुलारे बाजपेयी, डॉ नागेन्द्र तथा आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का नाम
प्रमुख है.
आचार्य नन्द दुलारे बाजपेयी की महाकवि
सूरदास जयशंकर प्रसाद, महाकवि निराला, आधुनिक हिन्दी साहित्य, हिन्दी साहित्य, बीसवी शताब्दी, नया साहित्य नये प्रश्न, आदि कई महत्वपूर्ण आलोचनात्मक रचनाएं है. आचार्य बाजपेयी
सौन्दर्यवादी आलोचक हैं.
डॉ नागेन्द्र नन्द दुलारे बाजपेयी की
तरह छायावाद के प्रति सहानुभूति रखने वाले समालोचक है. ये सौंदर्य शास्त्र को
लेकर आलोचना क्षेत्रा में प्रवेश किए. सुमित्रानन्दन पंत,
साकेत, भारतीय काव्यशास्त्र की परम्परा,
महाकवि देव, रीतिकाव्य की भूमिका, रस सिद्धांत आदि उनकी समीक्षात्मक कृतियां है. रस सिद्धांत नागेन्द्र
के साहित्य चिन्तन की सर्वोत्तम उपलब्धी हैं. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी
मानवतावादी समालोचक है. हिन्दी साहित्य की भूमिका कबीर,
हिन्दी साहित्य का आदिकाल, विचार और वितर्क, कल्पलता और अशोक के फूल आदि रचनाओं में द्विवेदी जी ने
ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से आलोचना को आगे बढ़ाया है. द्विवेदी जी की लोक
जीवन में अटूट आस्था थी.
साहित्यिक समीक्षा को प्रोढ़ रूप देने में
आचार्य नन्द दुलारे बाजपेयी, डॉ नागेन्द्र और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के अतिरिक्त
बाबू गुलाब राय शांति प्रिय द्विवेदी, डॉ रामकुमार वर्मा, पंडित विश्वनाथ मिश्र, डॉ सत्येन्द्र, डॉ कृष्णलाल, आचार्य परशुराम चर्तुवेदी, डॉ वार्ष्णेय एवं आचार्य वलदेव उपाध्याय का नाम भी
महत्वपूर्ण है।
बाबू गुलाबराय समन्वयवादी समालोचक थे. सिद्धांत
और अध्ययन तथा काव्य के रूप में उनके समन्यवादी रूप दृष्टि गोचर होता है. शांतिप्रिय
द्विवेदी ने छायावादी काव्य के सौंदर्य पक्ष का उद्घाटन किया है. पंडित विश्वनाथ
मिश्र रीति कालीन काव्य के समर्थक आलोचक है. परशुराम चर्तुवेदी सन्तकाव्य के आलोचक
है. डॉ कृष्णलाल डॉ वार्ष्णेय और रामकुमार वर्मा ने हिन्दी साहित्य पर प्रमाणिक
कार्य किया है. डॉ सत्येन्द्र का लोक साहित्य की ओर झूकाव है. आचार्य बलदेव
उपाध्याय भारतीय काव्य सम्प्रदायों की आलोचना प्रस्तुत की है.
आधुनिक युग में विविध् समीक्षा पद्धति का
विकास हुआ है. जिसमें शिवदान सिंह चौहान, रामविलास शर्मा, प्रकाशचन्द्र गुप्त, अमृतराय, यशपाल आदि मार्क्सवादी आलोचक हैं. इलाचन्द्र जोशी तथा
अज्ञेय ने मानों विश्लेषनात्मक आलोचनाएं प्रस्तुत की हैं. प्रभाववादी आलोचकों में शांतिप्रिय
दिवेदी, भगवत शरण उपाघ्याय का नाम प्रमुख है. आधुनिक समीक्षाओं में
डॉ इन्द्रनाथ मदान, डॉ रमेश कुंतल मेघ, लक्ष्मी कान्त वर्मा, रामस्वरूप चर्तुवेदी, जगदीश चन्द्र माथुर आदि का नाम महत्वपूर्ण है. इस प्रकार हिन्दी आलोचना प्रगति
पथ पर अग्रसर है क्योंकि इस क्षेत्रा में तीव्रता से काम हो रहा है.